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कविता

मेरे दरवाज़े सुबह

पंकज चतुर्वेदी


मेरे दरवाज़े
यदि सुबह आई
तो मैं अपने दरवाज़े
बंद कर लूँगा
और कहूँगा
कि अब बहुत देर हो चुकी है

देर से मिले न्याय की तरह
सुबह आएगी

मेरे दरवाज़े
रोकर
लिपट जाएँगे उससे

दरवाज़ों के पीछे मैं
खड़ा रहूँगा कहीं
उसे देखता


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